एक शहर से प्यार होना थोडा कठिन है. पर हमे वो हुआ, और काफी जोरों से हुआ.
सन १९९५ , फ़रवरी का महीना था वो शायद. हम ने पहली बार हबीबगंज रेलवे स्टेशन देखा.उस समय वो काफी अकेला सा था. एक छोटी सा स्टेशन था वो और एक्का दुक्का ट्रेन ही वहाँ रूकती थी. उस समय हमने पहली बार भोपाल को देखा था और देखते रह गए.
फ़र्ज़ कीजिए फ़रवरी की ठंडी सुबह जो हलकी सी धुँध से नहाई हुई है और उस ठंढ़ में आप एक छोटे से स्टेशन पे उतरे जहाँ ५-१० लोगो कि ही भीड़ हो. कुछ ऐसा ही दृष्य था उस समय. अभी भी याद करते हैं तो रोएं खड़े हो जाते हैं.
वो था हमारा पहला पल जब हमे भोपाल से प्यार हुआ. या यूँ कहिये कि हबीबगंज से प्यार हुआ. जो समय के साथ और गहरा होता चला गया.
जब उतरे हबीबगंज पे तो यह नहीं पता था कि वो शहर इतना सुन्दर है. पता तो तब चला जब हमे रहने के लिए भोपाल ने एक जगह दी जिसका नाम शिवाजी नगर है, जो ५ नो स्टॉप के पास है.
इ १००/१ एक सरकारी मकान था, काफी बड़ा और उतना ही हरा भरा. पीछे घर के आँगन मै बड़े बड़े पेड़ थे, आम के, कटहल के, अनार के. और उन पेडों पे सेकडों घोसले थे, जिन की हर एक डाल पे कोई न कोई पंछी परिवार बसता था.
हमारे घर के सामने एक छोटा सा स्कूल भी था, सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल. और हमारी सुबह सुबह नीदं तभी खुलती थी जब वहाँ की घंटी बजती थी.
बच्चो की मीठी आवाज़ में "तमसो माँ ज्योतिर्गमय' पढ़ना", और तुतलाती हुई आवाज़ मै राष्ट्र गान गाना दिल को छु जाता था. वैसी सुबह के लिए आज भी दिल तरसता है.
बच्चो की मीठी आवाज़ में "तमसो माँ ज्योतिर्गमय' पढ़ना", और तुतलाती हुई आवाज़ मै राष्ट्र गान गाना दिल को छु जाता था. वैसी सुबह के लिए आज भी दिल तरसता है.
वो घर सिर्फ पेड पोधो के लिए ही नहीं हमे लुभाता था, वहां पे जो भी लोग काम करते थे वो भी दिल के करीब थे. और उनमे से एक थे पांडे जी, रेवा के रहने वाले थे. वो खाना बनते थे और पेड पोधो की सेवा करते थे. बड़े ही सीधे सादे स्वाभाव के थे पांडे जी .
अब उनको याद करते है तो लगता है कि हमने उनको कितना परेसान किया.जब भी मन करता तब उनके साथ कुत्तें के पिल्लो को ढूडने निकल जाते थे, कभी उनको जबरदस्ती ५ नंबर के तालाब पे केकड़े पकड़ने ले जाते यह कभी उनको जेहेंगिराबाद के जानवर के मेले भेज देते जहाँ से वो हमारे लिए चूहा,खरगोश,मुर्गी के चूजे,कबूतर ले आते.
अब उनको याद करते है तो लगता है कि हमने उनको कितना परेसान किया.जब भी मन करता तब उनके साथ कुत्तें के पिल्लो को ढूडने निकल जाते थे, कभी उनको जबरदस्ती ५ नंबर के तालाब पे केकड़े पकड़ने ले जाते यह कभी उनको जेहेंगिराबाद के जानवर के मेले भेज देते जहाँ से वो हमारे लिए चूहा,खरगोश,मुर्गी के चूजे,कबूतर ले आते.
हमने उनको इतना परेसान किया पर उन्होंने ने कभी भी हमे डांटा नहीं और अभी भी जब कभी मिलते है तो "भैया भैया" कह के आँखों को नम कर लेते और देते हैं.
प्यार अलग अलग जगह से अलग अलग तरीके से मिलता है. और हमे भोपाल ने प्यार कभी इ १००/१ के माध्यम से या कभी पांडेयजी के स्नेह के माध्यम से दीया. और इन्ही कारणों से हमारा भोपाल के प्रति प्यार और बढ़ता चला गया.
बाद में भोपाल ने हमे पढ़ने के लिए एक स्कूल भी दे दीया. जवाहर लाल नेहरु स्कूल. बहुत कुछ जो भी हमने जीवन में सीखा हमने वहीँ सीखा. पढ़ना, लिखना, लड़ना, दोस्ती करना, और हाँ प्यार करना भी. जब २००१ मै हमने उसे अलविदा कहा तो बरसात हुई थी और आखो से भी आंसू गिरे थे.
जवाहर से हमारा एक ऐसा रिश्ता जुड गया, जो शायद कभी भी नहीं टूटेगा. आज भी हमे कोई जवाहर का बच्चा दीखता है तो हम उसको "जय जवाहर" बिना बोले नहीं रह पाते हैं. जब हम वहाँ पढते थे तब से हमे पता था कि जो दिन हमने वहाँ बिताएंगे वो कभी लोट के नहीं आयेंगे, और इसीलिए शायद समय निकलता गया और जवाहर के लिए हमारा प्यार और बढ़ता चला गया.
और यह बात भोपाल के लिए भी उतनी ही सच है.
और यह बात भोपाल के लिए भी उतनी ही सच है.
फिर हम गए नेशनल लव इंस्टिट्यूट, जो केरवा कि सुंदरता के बीच मै बसा हुआ है. पढाई तो हमने शायद ही कि वहां कभी. पांच साल का समय, हमने यह तो केरवा के जंगलो मैं बिताया, यह कलियासोत कि नदियों मै. वहां के हर जर्रे से कुछ ऐसा लगाव हुआ कि उसका दामन छोडे हुए १० साल हो गए, फिर भी उसकी याद है कि दिल से जाती नहीं. जब भी कभी बारिश होती है तो येही लगता है कि केरवा में होते तो कैसा होता.
भोपाल हमे अपना प्यार देता चला गया, और हम उसे खुले हाथो से समेटेते चले गए.
२००६ मै हमने क़तर जाते समय भोपाल को अलविदा कह दीया. पर उसने हमे एक प्रेयसी की तरह धोखा नहीं दीया और कभी अभिव्यक्ति डंडिया तो कभी दोस्त की शादी के बहाने हमे हर साल वापस बुलाता रहा.
वो बुलाता रहा और हम जाते रहे.
१० नंबर स्टॉप का वो साइकिल-सूप वाला , अरेरा की अनजानी भीड , रायसेन रोड की वो लंबी सड़क, साकेत का वो सूनापन, न्यू मार्केट का हनुमान मंदिर, झील का एहसास, सब ने कुछ न कुछ दीया है. कभी अन्सल्स और श्यामला हिल्स मै अपने आप को घुमता हुए पाया तो कभी रात के २ बजे भोपाल रेलवे स्टेशन पे चाय कि चुस्कियो मै खोया पाया.
कुछ खोया भी हमने भोपाल मै , पर इतना कुछ पा लिया था वहां पे कि उस खोने के एहसास मै भी अपने आप को हसता हुआ पाया.
हमारी और हमारे भोपाल की कहानी कुछ ऐसी है.
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